शिवेंद्र तिवारी

उन्हें रणतुंगा ने सिर्फ इतना कहा, ‘आरा! हम अंत तक शायद थक जाएँ। तुम उस वक्त तक ऊर्जा सँभाल कर रखना और उस दिन शतक जरूर मारना। हमें विश्व-कप दिला देना आरा! तुमसे और कुछ नहीं चाहिए।’
जब 1995 में श्रीलंका की टीम ऑस्ट्रेलिया से टेस्ट-सीरीज़ हार कर आई थी, तो पूरी टीम चिंता में डूबी थी। अरविन्द डिसिल्वा केंट काउंटी के लिए खेल कर एक बदले हुए खिलाड़ी बन कर लौटे थे। वह क्रिकेट के एक मेधावी छात्र थे, जिनकी उम्र के साथ भी सीखने की इच्छा रहती। वह कुछ मैचों में ‘बैक-फ्लिक’ प्रयास करते और फिर असफल होकर कुछ और अपनाते। यहाँ तक कि विश्व-कप के क्वाटर-फ़ाइनल के बाद वह नया बल्ला लेकर आ गए।
उन्होंने कहा, “सचिन भारी बल्ले से बल्लेबाज़ी करता है, तो उसके चौके बढ़िया दिखते हैं। मैं भी सोचता हूँ इसी बल्ले से बल्लेबाज़ी करूँ तो धड़ाधड़ चौके जाएँगे।”
उनके साथी चौंक गए कि बढ़िया तो खेल रहे हैं, अब इस वक्त कहाँ बल्ला बदलेंगे? सचिन का बल्ला तो बस सचिन ही उठा सकता है। दुबली-पतली बाँहों से भला यह कैसे उठेगा? लेकिन वे यह जानते थे कि अरविन्द ने ठान लिया है तो मानेगा नहीं। सेमीफ़ाइनल में वाकई उनके चौके इस गति से सीमा-रेखा पार करते कि सभी हैरान थे। सचिन के बल्ले ने अरविन्द को सचिन बना दिया। जब सभी खिलाड़ी देर-रात मस्ती कर रहे होते, अरविन्द डिसिल्वा वहीं होटल के गलियारे में बैट लेकर अकेले काल्पनिक शॉट ले रहे होते।
लोग मजे लेने के लिए पूछते, ‘आरा! कौन बॉलिंग कर रहा है?’
‘वसीम!’
‘क्या डालने वाला है?’
‘बाउंसर!’
वसीम अकरम की गेंद खेलने का मौका तो नहीं मिल सका, लेकिन वह समय आ ही गया जब उन्हें रणतुंगा को दिया वचन पूरा करना था। गद्दाफ़ी स्टेडियम में शतक मार कर उन्हें अर्जुन के हाथ में विश्व-कप थमाना था। कोई अप्रत्याशित धुआँधार पारी नहीं, बस एक सीधी-साधी सेन्चुरी…
[आगे कुछ पैरा के बाद के अंश]
…जैसे इस खेल के मुख्य पात्र एक वर्ष पूर्व ही तय हो गए थे, बाकियों का काम इनको क्लाइमैक्स तक पहुँचाना था। टूर्नामेंट में पहली बार रणतुंगा और मार्क टेलर ने जब हाथ मिलाया, तो यूँ लगा जैसे जीवन में पहली बार मिल रहे हैं। विश्व-कप की आपा-धापी में जैसे सारे ग़म भुला दिए। रणतुंगा ने उनकी टीम को बल्लेबाज़ी के लिए आमंत्रित किया। टॉनी ग्रेग ने फिर से कमेंट्री में याद दिलाया कि पहले बल्लेबाज़ी करने वाली टीम हमेशा जीतती आई है।
रही बात पाकिस्तानी भीड़ के उन्माद की, तो ऑस्ट्रेलिया की टीम का दिमाग कुछ ऐसा बना है कि उन्हें ऐसे मैदान में खेलने में आनंद आता है जहाँ भीड़ उनके खिलाफ हो। कप्तान मार्क टेलर और मार्क वॉ की जोड़ी ने आते ही चौके लगाने शुरू किए। मार्क वॉ गए तो पोंटिन्ग आए। पोंटिन्ग उस वक्त नवयुवक थे, मूँछ और छोटी दाढ़ी रखते थे; लेकिन उनकी छोटी तिरछी आँखें देख कर लगता कि आने वाले समय में चालाक खिलाड़ी बनेंगे। दोनों ने शतकीय साझेदारी कर ली। तभी इस खेल के नायक पधारे!
अरविन्द डिसिल्वा ने अपनी गेंद से एक साथ टेलर और पोन्टिंग दोनों को निपटा दिया। मुझे न जाने क्यों 1983 के मोहिन्दर अमरनाथ याद आ गए। यूँ लगता कि डिसिल्वा भी औसत गेंदबाज हैं, जिन्हें भाव न देकर बल्लेबाज़ गलती कर बैठता है। लेकिन इयान हीली का जो उन्होंने विकेट लिया, वैसे स्पिन मैंने जीवन में कम ही देखे। गेंद अच्छी खासी ऑफ-स्टंप के बाहर जा रही थी; अचानक गोली की गति से हीली के बल्ले और पैड के बीच से निकल कर लेग-स्टंप उड़ा गयी। मुरलीधरन ने बाद में कहा कि डिसिल्वा ने वह स्पिन इतनी सहजता से डाल दिया, जिसके लिए मुझे कई वर्ष लगे। और-तो-और मिड ऑन पर दौड़ते हुए अरविन्द डिसिल्वा ने एक लाजवाब कैच भी पकड़ा। तीन महत्वपूर्ण विकेट और दो कैच लेकर अरविन्द हीरो तो खैर बन ही चुके थे, लेकिन उनका मुख्य खेल तो बचा ही था।
फाइनल के लिए 241 का लक्ष्य कोई कम न था, वह भी तब जब जयसूर्या-कालूवितरना की जोड़ी उतरते ही आउट हो गयी। उसके बाद अरविन्द डिसिल्वा के साथ असंका गुरुसिंघे उतरे। असंका गुरुसिंघे इंजमाम की तरह ही भारी-भरकम थे, घनी मूँछ-दाढ़ी भी थी।
जब रणतुंगा ने जयसूर्या को खुल कर छक्के-चौके मारने की जिम्मेदारी दी थी, गुरुसिंघे ने टोका, ‘मैं भी छक्के लगा सकता हूँ।’
रणतुंगा ने कहा, ‘मुझे मालूम है। लेकिन इस टूर्नामेंट में तुम लंबी पारी खेलना ताकि गेंदबाजों को घूर-घूर कर डरा सको।’
गुरुसिंघे ने रणतुंगा के हनुमान की तरह इस आदेश का पालन किया। वह च्विंगम चबाते ऑस्ट्रेलिया के तेज गेंदबाजों को ऐसे घूरते कि बिचारे स्लेजिंग करना भूल गए। जब शेन वार्न आए, तब तो उन्होंने उस खून भरी तिरस्कार की नजर से देखा कि वार्न ने चुपचाप सर झुका लिया। दूसरी ओर, डिसील्वा तो चौके पर चौके लगाए जा रहे थे। दोनों यूँ खेल रहे थे जैसे लाहौर में पार्टी चल रही हो।
सबसे बुरा हाल था बारहवें खिलाड़ी रविन्द्र पुष्पकुमार का। उनको हर पाँच-दस मिनट में पानी लेकर दौड़ा दिया जाता। जाने से पहले रणतुंगा ज्ञान देते कि आरा-गुरा को यह समझाना। इतने में महानामा आकर कुछ और समझाते। जब वह सीढ़ी से उतर रहे होते तो डेव व्हाटमोर ऐसी अंग्रेजी में समझाते, कि रविन्द्र के मत्थे तो कुछ लगता नहीं, पुराना समझाया भी भूल जाते।
बाद में डिसिल्वा ने बताया कि रविंद्र बस आता और कहता, “वेल प्लेड अय्या!” हम पूछते कि कोई संदेश लाए हो? तो कहता कि सब भूल गया, फिर पूछ कर आता हूँ।
जब यह पार्टी खत्म हुई तो दूसरी पार्टी शुरु हुई। गुरुसिंघे गए; कप्तान अर्जुन स्वयं पाजामा खुजाते पधारे और पहली ही गेंद पर चौका जड़ कर पिच पर डिसिल्वा से कंधा मिलाया तो डिसिल्वा बुदबुदाए, ‘आयुबोवन अर्जुनैय्या!’ (अर्जुन भाई को नमस्कार)
94 रन बनाने अभी और बचे थे, गेंद और मैदान पुराने हो चले थे। स्पिन के बादशाह शेन वार्न गेंद फेंकने वाले थे। लेकिन यह खेल एक परी-कथा बन चुका था। रणतुंगा ने विश्व-कप से पहले अपने प्रेस-कांफ्रेंस की शुरुआत यह कह कर नहीं की थी कि वे विश्व-कप जीतेंगे। उन्होंने बस यह कहा था कि वह ऑस्ट्रेलिया को हराएँगे। ऑस्ट्रेलिया का फ़ाइनल में होना तो एक संयोग था। वह जब मैदान में पहुँचे, तो उन्हें वही लोग नजर आ रहे थे जो एक वर्ष पूर्व उन्हें चिढ़ा रहे थे। पीछे इयान हीली खड़े थे जिन्होंने ‘मोटा सांड’ कहा था। प्वाइंट पर मार्क टेलर खड़े थे। स्क्वायर-लेग में रिकी पोन्टिंग खड़े थे। सामने गेंदबाज़ी कर रहे थे शेन वार्न जिन्होंने खुल कर श्रीलंका को एक खतरनाक देश कह कर आने से मना कर दिया था। शेन वार्न की ओवर में पहले चौका और फिर एक लंबा छक्का लगा कर अर्जुन रणतुंगा ने एक हिसाब तो निपटा दिया। हाँ! एक गेंदबाज का आदर वह करते रहे, जो आने वाली क्रिकेट पीढ़ियों ने भी की। ग्लेन मैकग्राथ की एकरूपी कसी गेंदबाज़ी पर डिसिल्वा का एक फ़्लिक ही याद आता है।
टोनी ग्रेग ने उछल कर कहा, “लिटल लंकन्स ने ऑस्ट्रेलिया को मुँह छुपाने की भी जगह नहीं छोड़ी।”
इयान चैपल टका सा मुँह लेकर उन्हें देखते रहे कि इन्हें क्या हो गया। अरविन्द डिसिल्वा ने अंतिम समय में फाइन-लेग में चौका लगा कर अपना शतक पूरा किया। ऐसा आज तक बस विवियन रिचर्ड्स और क्लाइव लाइड ने किया था कि विश्व-कप फाइनल में शतक लगाएँ। कुछ सेकंड दोनों हाथ उठा कर डिसिल्वा वापस क्रीज पर आ गए। शतक तो औपचारिकता थी, उन्हें अब बल्ला रणतुंगा को पकड़ा कर विजयी शॉट लगवाना था। ठीक 241 के बराबरी स्कोर पर उन्होंने कप्तान को कमान दे दी।
अब चार ओवर शेष थे, और एक आखिरी विजयी रन बचा था। मुरलीधरन सीमा-रेखा पर बच्चों की तरह दौड़ कर आ गए, और उनके पीछे बाकी की टीम भी जमा हो गयी। रणतुंगा ने भी देर नहीं की, और अपना पेटेंट शॉट मारा- थर्ड मैन पर ग्लाइड और सीमा-रेखा पार!! उसके बाद टीम तो दौड़ती हुई आ गयी, लेकिन रणतुंगा अपने भारी कदमों से हिलते-डुलते विकेट उखाड़ने में लगे थे। चेहरे पर एक अजीब शांति और गंभीरता थी। कोई अति-उत्साह नहीं। बड़े आराम से वह ऑस्ट्रेलिया टीम के सदस्यों का हाथ मिला कर धन्यवाद ज्ञापन कर रहे थे। लंका विश्व-कप जीत चुकी थी। सनत जयसूर्या मैन ऑफ द सीरीज़ चुने गए। मैन ऑफ द मैच तो आपको पता ही है।