शिवेंद्र तिवारी 9179259806

कहानी साल 2003-04 की है…
भारत की टीम जाने वाली थी ऑस्ट्रेलिया, उस वक़्त की सबसे खतरनाक टीम के खिलाफ़।
और ड्रेसिंग रूम में हो रही थी एक ऐसी बहस… जो भारतीय क्रिकेट की दिशा बदलने वाली थी।
चयन बैठक देर रात तक चली थी।
सेलेक्टर्स का साफ़ कहना था..
“अनिल कुंबले अब पुराने हो गए हैं,
वो विदेशों में विकेट नहीं निकालते,
ऑस्ट्रेलिया की पिचें उनके लायक नहीं।”
लेकिन सामने बैठे सौरव गांगुली ने कुर्सी पर सीधा झुक कर कहा
“मैं बिना कुंबले के ऑस्ट्रेलिया नहीं जाऊँगा।”
कमरा सन्नाटा छा चुका था।
सेलेक्टर्स ने आख़िरी चेतावनी दी ..
“अगर कुंबले विकेट नहीं लेंगे,
और टीम असफल रही…
तो नया कप्तान चाहिए होगा।”
गांगुली ने सिर उठाया,
थोड़ा मुस्कराए,
और बस इतना बोले —
“फिर नया कप्तान ढूंढ लेना,
लेकिन कुंबले जाएगा।”
यही था वो दादा का जज़्बा,
जो हर साथी खिलाड़ी के पीछे ढाल बन खड़ा रहता था।
कुंबले को टीम में जगह मिली…
और फिर शुरू हुआ ऑस्ट्रेलिया का वो दौरा,
जो आज तक भारतीय क्रिकेट की यादों में सुनहरी स्याही से लिखा है।
एडिलेड, मेलबर्न, सिडनी –
हर मैदान पर कुंबले ने गेंद से ऑस्ट्रेलिया को नाचना सिखा दिया।
सीरीज़ में उन्होंने 24 विकेट लिए,
भारत के सबसे कामयाब गेंदबाज़ बने,
और टीम ने इतिहास रच दिया ..
ऑस्ट्रेलिया में टेस्ट सीरीज़ 1-1 से ड्रॉ,
पहली बार इतने आत्मविश्वास के साथ।
वो जीत से भी बढ़कर थी —
वो थी “सम्मान की बराबरी।”
आज जब कोई पूछे —
“गांगुली क्यों ‘दादा’ कहलाते हैं?”
तो जवाब यही है..
क्योंकि उन्होंने सिर्फ़ मैच नहीं,
अपने खिलाड़ियों पर भरोसा जताया था।
यह होता है असली कप्तान !!
ऐसे हि 2003 के वर्ल्ड कप के लिए जवागल श्रीनाथ को रिटायरमेंट से वापस बुला कर अफ्रीका ले गए थे ।।
और अनिल कुंबले?
वो फिर साबित कर गए —
जहाँ मेहनत, जुनून और कप्तान का विश्वास साथ हो…
वहाँ विदेशी पिच भी घर जैसी लगने लगती है।
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Vindhya bharat