- शिवेंद्र तिवारी
बॉलीवुड के संजीदा एक्टर्स में से एक ओमपुरी ने अपनी शानदार एक्टिंग और दमदार आवाज के दम पर हिंदी, मराठी फिल्मों से लेकर हॉलीवुड तक को अपना मुरीद बनाया। करीब 3 दशक तक हिंदी सिनेमा में हर तरह का किरदार निभाने वाला ये सदाबहार स्टार अपनी बेबाक बोल के कारण कई बार विवादों में भी रहा। रंगीन मिजाज के ओमपुरी की जिंदगी में यूं तो कई महिलाएं आईं लेकिन उनके साथ कोई भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई और शायद यही कारण रहा कि अपने आखिरी दिनों में वो एकदम अकेले और तन्हा ही रहे।
18 अक्टूबर 1950 को अंबाला में जन्मे ओमपुरी का बचपन बेहद गरीबी में गुजरा। जब ओमपुरी 7 साल के थे तो उनके पिता राजेश पुरी जो रेलवे स्टोर में इंचार्ज थे उनको चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया। जब उसके पिता जेल भेजे गए तो रेलवे ने उनको दिया क्वार्टर भी परिवार से खाली करवा लिया। तंगहाली में ओम के बड़े भाई वेद ने कुली का काम करना शुरू कर दिया और ओम पुरी को चाय की दुकान पर कप प्लेट साफ करना पड़ा। लेकिन परिवार की मुश्किलें कम नहीं हो रही थी। खाने के लाले पड़ रहे थे तो 7 साल का बच्चा एक दिन एक पंडित जी के पास गया लेकिन बजाए मदद करने के पंडित ने 7 साल के बच्चे का यौन शोषण कर डाला।
दोस्तों की मदद और अपने कठिन परिश्रम की वजह से ओमपुरी ने अपनी पढाई पूरी की। ओमपुरी जब 9वीं क्लास में थे तो उनके मन में ग्लैमर की दुनिया में जाने कई इच्छा होने लगी। अचानक एक दिन अखबार में उन्हें एक फिल्म के ऑडिशन का विज्ञापन दिखाई दिया और ओम ने उसके लिए अर्जी भेज दी। कुछ दिनों के बाद एक रंगीन पोस्टकार्ड पर ऑडिशन में लखनऊ पहुंचने का बुलावा था। साथ ही एंट्री फीस के तौर पर पचास रुपये लेकर आने को कहा गया था। तंगहाली में दिन गुजार रहे ओमपुरी के पास ना तो पचास रुपये थे और ना ही लखनऊ आने जाने का किराया, सो फिल्मों में काम करने का यह सपना भी सपना ही रह गया। ये फिल्म थी जियो और जीने दो। वक्त के थपेड़ों से जूझते ओमपुरी दिल्ली आते है और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में एडमिशन लेते है। लेकिन यहां भी हिंदी और पंजाबी भाषा में हुई अपनी शिक्षा को लेकर उसके मन में जो कुंठा पैदा होती है वह उसे लगातार वापस पटियाला जाने के लिए उकसाता रहता है। लेकिन उस वक्त के एनएसडी के डायरेक्टर अब्राहम अल्काजी ने ओमपुरी की परेशानी भांपी और एमके रैना को उससे बात करने और उत्साहित करने का जिम्मा सौंपा। एनएसडी के बाद ओमपुरी का अगला पड़ाव राष्ट्रीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे था। यहां एनएसडी में बने दोस्त नसीरुद्दीन शाह भी ओम के साथ थे। जैसा कि आमतौर पर होता है कि पुणे के बाद अगला पड़ाव मुंबई होता है वही ओम के साथ भी हुआ। यहां पहुंचकर फिर से एक बार शुरू हुआ फिल्मों में काम पाने के लिए संघर्षों का दौर। यहां ओम को पहला असाइनमेंट मिला एक पैकेजिंग कंपनी के एक विज्ञापन में जिसे बना रहे थे गोविंद निहलानी। फिर फिल्में मिली और ओम मशहूर होते चले गए ।
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के छात्र रहे ओमपुरी ने मराठी फिल्म घासीराम कोतवाल से सन 1976 में बॉलीवुड में कदम रखा था। विजय तेंडुलकर के नाटक पर बनी इस फिल्म को मणि कौल ने निर्देशित किया था। उसके बाद तो सद्गति, आक्रोश, अर्धसत्य, मिर्च मसाला और धारावी जैसी फिल्मों में यादगार भूमिका निभाई । इस के अलावा उन्होंने ‘जाने भी दो यारो’, ‘चाची 420’, ‘मालामाल वीकली’, ‘माचिस’, ‘गुप्त’, ‘सिंह इज किंग’ और ‘धूप’ जैसी कमर्शियल फिल्में भी की। उनको ‘अर्धसत्य’ में शानदार रोल के लिए नेशनल फिल्म अवॉर्ड भी मिला था। हिंदी फिल्मों के अलावा उन्होंने कई अंग्रेजी फिल्मों में भी काम किया और वहां भी अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी। ‘घोस्ट ऑफ द डार्कनेस’, ‘ सिटी ऑफ जॉय’, ‘माईसन द फैनेटिक’, ‘ वुल्फ’ जैसी फिल्मों में उनके काम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली। छोटे पर्दे पर ‘कक्का जी कहिन’ के काका के तौर पर उनकी भूमिका अब भी मील का पत्थर है।
