-(विश्व पर्यावरण पर आलेख)-
भारत की रचना, सर्वे भवन्तु सुखिन :
सतना। भारतभूमि के महर्षियों ने समूची सृष्टि और प्रकृति को मां के रूप में देखा था और उसे मां कहकर पुकारा था। परिणाम में वह मां प्राण वायु देकर वात्सल्यता प्रदान करती रही। यह संदेश राजगुरु मनोज अग्निहोत्री ने विश्व पर्यावरण दिवस पर अपने संदेश में कहे। उन्होंने कहा कि मौजूदा समय में आसुरी पप्रवृत्ति के लोगों ने उस प्रकृति माँ को अपने अधीन करने में ही विश्वास रखने लगे। परिणाम में भाव वत्सला प्रकृति अपना सौम्य रूप छोड़ कर महाकाली, चंडी और चामुंडा का रौद्ररूप धारण कर मौत की छाया बनकर मानव जीवन में मंडराने लगी। समय रहते प्रकृति को मां के रूप में देखने की दृष्टि नहीं बनी तो कष्ट घटने की बजाय बढ़ेगा। यह स्थिति विश्व स्तर पर होगी। नित नए विकास के दावों के नाम पर न केवल मानव जिंदगी, बल्कि दूसरे जीवों और वनस्पतियों की जिंदगी तबाह होने से चारो ओर हाहाकार मचा हुआ है। आखिर क्यों ? इसलिए कि सुख के लिए किया जा रहा विकास दिशाहीन, धर्महीन और माता प्रकृति की ममता से विहीन है।
आत्मीयता घट रही भावनाएं मुरझा रहीं
राजगुरु ने कहा कि आज हमारी पर्यावरणीय नीतियों के कारण सुसंस्कृतियों को नहीं विकृतियों को ही बढ़ावा मिल रहा है। मजहब और विश्वासों की अलग-अलग पहचान बना कर खड़ी मान्यताएं मनुष्य को गिरोह बंद तो कर सकती हैं, पर उसे संवेदना से सींच नहीं सकती। सार्वभौमिक धर्म तो वह है जिसमें अलग-अलग आस्थाओं का एक विश्व दर्शन हो। जिसमें विश्व प्रकृति माता की सच्ची संवेदना झंकृत हो। विश्व कल्याण के भाव कूट-कूट कर भरे हों। प्रकृति रूपी जननी की भक्ति करने वाले भारत राष्ट्र का यह वैष्वीकरण न तो कभी स्वार्थ प्रेरित रहा और न ही विनाशकारी, अपितु इसमें तो सर्वे भवन्तु सुखिनः के महान भाव भरे हैं। आज इसे फिर से नवजीवन देने की आवश्यकता है। इसी में प्रकृति माता की सहभागिता है, संरक्षण है और सदा-सदा के लिए अपनी सभी संतानों पर प्यार लुटाने का आश्वासन भी।
