शैलचित्रों को इतिहास और मानव सभ्यता के शुरूआती दिनों का माना जा रहा प्रमाण
शैलचित्र गर्मियों में हल्के और बरसात में दिखते हैं गहरे और स्पष्ट
लोग धरोहर को लेकर लापरवाह, चट्टानों के साथ करते हैं छेड़छाड़ और तोडफ़ोड़
देवेन्द्र दुबे, रीवा
सिरमौर के 10,000 साल पुराने शैलचित्र मध्य प्रदेश की धरोहर और इतिहास का अनमोल खजाना हैं. इनके संरक्षण और जागरूकता की सख्त जरूरत है. यदि सरकार और स्थानीय प्रशासन इन पर ध्यान दें, तो यह स्थल भी भीमबेटका की तरह वैश्विक मान्यता प्राप्त कर सकता है.
जिले के सिरमौर क्षेत्र में घने जंगलों और पहाड़ी इलाकों के बीच 10,000 साल पुराने शैलचित्रों (रॉक पेंटिंग्स) की खोज की गई है. इन शैलचित्रों को इतिहास और मानव सभ्यता के शुरुआती दिनों का अमूल्य प्रमाण माना जा रहा है. सिरमौर के इन शैलचित्रों की तुलना मध्य प्रदेश के ही भीमबेटका से की जा रही है, जो यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में प्रसिद्ध है.
जिले से 45 किलोमीटर दूर स्थित सिरमौर का यह क्षेत्र घने जंगलों, ऊंची पहाडिय़ों, और प्राचीन जलप्रपातों से घिरा हुआ है. इन जंगलों के बीच दुर्लभ रॉक पेंटिंग्स मौजूद हैं, जो हजारों साल पहले के आदिमानवों की जीवनशैली, कला, और संस्कृति की झलक दिखाती हैं. इन चित्रों में हाथियों की सवारी, शिकार के दृश्य, और नृत्य करते आदिमानवों को गेरुआ रंग में उकेरा गया है.
शैलचित्रों का ऐतिहासिक महत्व
कन्या महाविद्यालय, रीवा के प्रोफेसर डॉ. मुकेश एंगल के अनुसार, ये शैलचित्र मानव सभ्यता के शुरुआती काल की मित्रता, कला, और संस्कृति का जीता-जागता उदाहरण हैं. यह खजाना न केवल स्थानीय बल्कि वैश्विक महत्व का है.
शैलचित्रों में इस्तेमाल रंग प्राकृतिक और टिकाऊ हैं.इनमें प्राकृतिक जीवन का सटीक चित्रण किया गया है.सिरमौर की इन पेंटिंग्स को हड़प्पा कालीन सभ्यता के समकालीन माना जा रहा है.संरक्षण की आवश्यकतासिरमौर के शैलचित्र संरक्षण के अभाव में तेजी से खराब हो रहे हैं.
प्राकृतिक कारण
बारिश और बदलते मौसम के कारण पेंटिंग्स का रंग फीका पड़ रहा है.मानव गतिविधियां: गिट्टी तोडऩे वाले स्थानीय लोगों ने कई चट्टानों को नुकसान पहुंचाया है.इतिहासकारों का मानना है कि जिस तरह भीमबेटका को संरक्षण और पर्यटन के लिहाज से बढ़ावा दिया गया है, सिरमौर के इन शैलचित्रों को भी वैसा ही महत्व मिलना चाहिए.
रॉक पेंटिंग्स का अनूठापन
सिरमौर की रॉक पेंटिंग्स का एक दिलचस्प पहलू यह है कि मौसम के अनुसार इनके रंग बदलते हैं. गर्मियों में ये चित्र हल्के और फीके नजर आते हैं.बरसात के मौसम में: ये गहरे और स्पष्ट दिखते हैं. इन चित्रों में आदिमानवों की रोजमर्रा की गतिविधियों को दर्शाया गया है, जैसे शिकार करना, नृत्य करना, और हाथियों की सवारी.जागरूकता की कमी स्थानीय समुदायों में इन शैलचित्रों के महत्व के प्रति जागरूकता की कमी है. लोग इन दुर्लभ धरोहरों को लेकर लापरवाह हैं. कई चट्टानों पर अनावश्यक छेड़छाड़ और तोडफ़ोड़ हो रही है. इतिहासकारों और पुरातत्वविदों का कहना है कि यदि इन पेंटिंग्स को सही तरीके से संरक्षित किया जाए, तो यह क्षेत्र न केवल पर्यटन का प्रमुख केंद्र बन सकता है, बल्कि वैश्विक धरोहर के रूप में भी मान्यता प्राप्त कर सकता है।
धार्मिक स्थल के रूप में पहचान
सरकार द्वारा सिरमौर को धार्मिक और पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना पर काम किया जा रहा है. रॉक पेंटिंग्स के आसपास रंग-रोगन का कार्य शुरू हो चुका है.
शोधकर्ताओं की खोज और प्रयास
1870 के दशक में ब्रिटिश पुरातत्वविद अलेक्जेंडर कनिंघम ने सिरमौर में इन शैलचित्रों का पहला सर्वेक्षण किया था. हाल ही में, रीवा के प्रोफेसर डॉ. मुकेश एंगल और उनके साथियों ने सिरमौर के जंगलों में कई नई रॉक पेंटिंग्स की खोज की.
कैसे पहुंचें सिरमौर?
रीवा से दूर 45 किलोमीटर निकटतम रेल मार्ग: रीवा रेलवे स्टेशन.सिरमौर तक पहुंचने के लिए बीना और खुरई जैसे मार्ग भी उपलब्ध हैं।