
कोई भी बोली न सिर्फ उस क्षेत्र के जन मानस की लोक ब्यौहार की भाषा होती है, बल्कि उसमें लोकगीत, लोक कथाएं , मुहावरे, लोकोक्तियां, कहावतें ,झाड़ फूक के मंत्र एवं पहेलियों आदि सभी मिल जुलकर उसे सरस और अर्थपूर्ण भी बनाते हैं। बघेली मध्यप्रदेश की चार प्रमुख बोलियों- क्रमशः बुन्देली, बघेली, मालवी एवं निवाड़ी में एक है। उसका भौगोलिक क्षेत्रफल भले ही अन्य बोलियों के मुकाबले कम हो पर उसमें उपरोक्त सभी लोक तत्व मौजूद हैं। आवश्यक है उन्हें समय रहते संकलित और संरक्षित कर लेने की। क्योकि नई पीढ़ी उससे पूरी तरह बिमुख होती जा रही है एवं विलुप्तता का इतना खतरा है कि जो परिवर्तन पहले हजारों वर्षों में नही होते थे वह देखते ही देखते 50 वर्षों में हो गए ।
इधर विलुप्तता का यह आलम है कि यदि गांव में ट्रैक्टर आने से एक भी हल चलन से बाहर हुआ तो उसके साथ जुआ,डेंगर , कोंपर ,ओइरा, ढोलिया, हरइनी, बांसा, घुटकू, पछेला, नारा, खुरा, जोतावर आदि पचासों छोटे बड़े उपकरण भी चलन से बाहर हो जाते हैं।यदि अब और देर हुई तो पुरखों की लोक में बिखरी उन तमाम अमूल्य धरोहरों को बचाना मुश्किल हो जाएगा।
यद्दपि हमने अपने संग्रहालय में बहुत सी ऐसी बस्तुओं को संग्रहीत कर लिया है। परन्तु एक उपकरण अभी तक नही है वह है (कोंपर ) कोंपर 7-8 हाथ लम्बा एक बीता चौड़ा और उतना ही मोटा लकड़ी का एक पाटा होता है जिसमें दोनों किनारे लौह के दो छल्ले लगे रहते थे। फिर उन्ही में रस्सी बांध उसे दो जोड़ी बैल नध कर पहले खेत के ढेला फोड़े जाते थे फिर गेहूं की बुबाई होती थी। हम सोचते थे कि किसी किसान के यहां वह बना बनाया पुराना ही मिल जाता पर लगता है संग्रहालय के लिए नया ही बनबाना पड़ेगा।
यह वही कोंपर है जिसपर बघेली कहावत थी कि
( नधा कोंपर नहि मिलय)
क्योकि कोंपर हर किसान के यहां नही होता था। लोग दूसरों से मांग कर भी अपना काम चला लेते थे। पर अगर किसी के खेत में कोंपर चल रहा है तो दूसरे को तब तक इंतजार करना पड़ता था जब तक वह खाली न हो जाय। भले ही वह उसी का कोंपर रहा हो। इसीलिए शायद उपरोक्त कहावत बनी होगी।
परन्तु कोंपर से मात्र यह कहावत भर नही समाप्त होगी बल्कि उसके जाने से बहुत सी बघेली की पहेलियां भी चलन से बाहर हो जांयगी। यथा–
बारा आँखी बीस पग,
छह मुख छियांनबे दंत।
पति से या पत्नी कहय,
बूझ बताबा कंत।।
इस कूट पहेली के उत्तर में कोंपर ही है क्योकि उसमें 4 बैल और दो कोंपर चलाने वाले रहते हैं अस्तु सभी के मिलकर छः मुख एवं 12 आंख हुईं। परन्तु बैलों के आठ-आठ दांत ही होते हैं और मनुष्य के बत्तीस अस्तु चार बैलों के 32 दांत हो जाँय गे लेकिन दो कोंपर चलाने वालों के दांतों की संख्या 64 हो जांयगी। और सभी मिलकर 96 लेकिन कोंपर पर एक अन्य पहेली भी है यथा–
पहिले नन्दन वन रहेउ,
पुन बढ़ई मइदान।
बांध लिहिन मोहीं पकड़,
छय मुँह बारा कान।।
इसमें कोंपर कह रहा है कि “पहले तो मैं जंगल में रहा जहाँ से कट कर बढ़ई के द्वार पर आया।
लेकिन बाद में मुझे छः मुँह और बारह कान वालों ने पकड़ कर बांध लिया। इस तरह इस पहेली के छः मुँह चार बैलों के एवं दो मनुष्यों के हैं और उन्ही के ही सभी के मिलकर बारह कान हो जाते हैं।
इसी तरह की कोंपर से सम्बंधित एक पहेली में महिलाओं के बालों में कंघा करने और माथे में लगने वाले सिंदूर से भी उपमा दी गई है। यथा–
सरकत आबय सरकत जाय।
सांप न होय बड़ा दइदर आय।।
परन्तु एक पहेली कोंपर से कोपराए खेत को प्रतीक बनाकर भी कही गई है कि-
जोता है कोपराबा है।
लाल घोड़ा दउड़ाबा है।।
इसमें जोता और कोपराबा का आशय बालों में कंघा और तेल से है परन्तु लाल घोड़ा दौड़ाबा के मायने मांग में सिंदूर हो जाता है।
लेकिन अकेले कोंपर भर नही इसी तरह अनेक ऐसे उपकरण हैं। जिनके विलुप्त होने से उनसे सम्बंधित मुहावरे, लोकोक्तियों एवं पहेलियों के अर्थ भी कालांतर में अनबूझ बनकर रह जांयगे।