मुख्यमंत्री भजनलाल ने घर जाकर की मुलाकात,क्या अपनी उपेक्षा को बुलाकर फिर सक्रिय होंगी पूर्व मुख्यमंत्री
शिवेंद्र तिवारी 9179259806
*क्या राजस्थान में पांच विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव के चलते भारतीय जनता पार्टी को एक बार फिर पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की शरण में जाना पड़ रहा है? क्या लोकसभा और विधानसभा चुनाव में लगातार उपेक्षा और उसका परिणाम देखने के बाद भाजपा नेतृत्व को लगने लगा है कि वसुंधरा बिना राजस्थान में भाजपा कमजोर पड़ रही है? क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी-अमित शाह ने नेतृत्व की जिस सैकंड लाइन को आगे बढ़ाया था,वह नाकाम हो गई है? और सबसे बड़ा सवाल कि क्या वसुंधरा राजे लगातार अपनी उपेक्षा के बाद एक बार फिर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने के लिए सक्रिय होगी?*
*पहले विधानसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं जीतने और उसके बाद लोकसभा चुनाव में 25 में से 11 सीटों पर मिली हार के बाद भाजपा को शायद अहसास हो गया है कि वसुंधरा राजे को दूध में से मक्खी की तरह नहीं निकाला जा सकता। वह सक्रिय रहकर जितना भाजपा को फायदा पहुंचा सकती है,उससे कई ज्यादा नुकसान खामोश रहकर पहुंचा रही है। विधानसभा में भाजपा को उम्मीद थी कि उसका आंकड़ा 200 में से डेढ़ सौ सीटें जीतने तक जा सकता है। इसका कारण यह था कि कांग्रेस में सचिन पायलट और अशोक गहलोत आपस में भिड़े हुए थे। पूरे राजस्थान में जिला स्तर पर भी कांग्रेस नेताओं के बीच आपसी मतभेद थे। इसके नेता ही एक-दूसरे को निपटाने में लगे थे। इसके चलते भाजपा को उम्मीद थी कि पार्टी जबरदस्त जीत हासिल करेगी। विभिन्न स्तर पर हुए सर्वे तथा खुद पार्टी के आंतरिक सर्वे में कहा गया था कि पार्टी 150 सीटें तक जीत सकती है। ऐसे में भाजपा आलाकमान ने वसुंधरा को दूध में से मक्खी की तरह निकाल दिया। उनके कई समर्थकों के टिकट काटे गए,तो विधानसभा चुनाव में उन्हें प्रचार के लिए राजस्थान भर में नहीं घुमाया गया। खुद वसुंधरा भी अपने करीबी कुछ उम्मीदवारों के यहां जनसभाएं संबोधित करके अपने क्षेत्र में सिमटकर रह गई। भाजपा 115 सीटों पर आकर ठहर गई। इसके बाद जब मुख्यमंत्री चयन की बारी आई, तब भी वसुंधरा ने आलाकमान पर इस पद को पाने के लिए खूब दबाव बनाया। लेकिन उनकी एक नहीं चली और खुद उन्हें ही विधायक दल की बैठक में दिल्ली से आए भजनलाल के नाम की पर्ची मुख्यमंत्री के रूप में खोलनी पड़ी।*
*इसके बाद लोकसभा चुनाव में भी वसुंधरा के साथ यही सब दोहराया गया। यह चुनाव भाजपा के लिए ज्यादा घातक साबित हुए। मोदी-शाह सहित भाजपा नेता लगातार 25 सीटें जीतने की हैट्रिक लगाने का दावा करते रहे। लेकिन वह 14 सीटों पर आकर सिमट गई। लोकसभा चुनाव में वसुंधरा को स्टार प्रचारक बनाए जाने के बावजूद राजस्थान में उनकी सभाएं नहीं कराई गई और चुनाव का पूरा मोर्चा मुख्यमंत्री भजनलाल ने संभाला। जाहिर है भजनलाल चुनावी परीक्षा में नाकाम रहे और वसुंधरा राजे की उपेक्षा ने पार्टी को ही नुकसान पहुंचाया। वसुंधरा के प्रति मोदी और शाह की उपेक्षा का आलम यह रहा कि लगातार पांचवीं बार झालावाड़ से सांसद बने उनके पुत्र दुष्यंत सिंह को मंत्रिमंडल में जगह नहीं दी गई। जबकि विधानसभा चुनाव हार कर लोकसभा चुनाव में दूसरी बार जीते अजमेर के सांसद भागीरथ चौधरी को मंत्री बना दिया गया। हालांकि चौधरी को मंत्री बनाने की मजबूरी थी,क्योंकि राजस्थान में उनके अलावा कोई जाट नेता भाजपा के टिकट पर नहीं जीता था।*
*अब जल्द होने वाले विधानसभा के उपचुनाव में लगता है पार्टी को फिर वसुंधरा की याद आ गई है। आमतौर पर उपचुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी के ही उम्मीदवारों की जीत होती रही है। लेकिन संकट ये है कि राजस्थान में जिन पांच सीटों पर उपचुनाव होना है ,वहां कांग्रेस और इंडिया गठबंधन के सहयोगी नेताओं का कब्जा था। देवली उनियारा से हरीश मीणा,दौसा से मुरारी लाल मीणा,झुंझुनू से विजेंद्र ओला ( सभी कांग्रेस ) चोरासी से बाप के राजकुमार रोत व खींवसर से आरएलडी के हनुमान बेनीवाल विधायक थे, जो सांसद बन गए हैं। ऐसे में उपचुनाव में भाजपा के लिए चुनौती गंभीर है और आलाकमान जानता है कि इस पर काबू पाने के लिए वसुंधरा जरूरी है। उधर,किरोड़ी लाल मीणा के इस्तीफे के कारण भाजपा वैसे ही पशोपेश में है। फिर लोकसभा चुनाव में भाजपा को पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के कारण भी मोदी और शाह के दबदबे पर थोड़ा दबाव जरूर पड़ा होगा। इसके अलावा लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा नेताओं की बयानबाजी भी संगठन और सरकार की कमजोरी की पोल खोल रही है। शायद इसीलिए कल मुख्यमंत्री भजनलाल उनसे मिलने के लिए उनके निवास स्थान पर पहुंचे,क्योंकि अगर उपचुनाव में भाजपा की हार होती है, राजस्थान में भाजपा सरकार और संगठन की कमजोर होती पकड़ को जाहिर करेगी।*
*यूं भी सरकार बनने के करीब 7 महीने बाद भी लोगों के बीच यही संदेश जा रहा है कि सरकार को नौकरशाह चला रहे हैं। खुद भाजपा के विधायक इस बात से खफा है कि अधिकारी उनकी ही नहीं सुनते हैं। जिससे उन्हें अपने क्षेत्र में जनता के बीच जाना भारी पड़ने लगा है। मंत्री इस बात से दुखी है कि उन्हें उनकी पसंद के अफसरों को नहीं लगाने दिया जा रहा है। उनके काम नहीं है रहे। ये आम धारणा है कि दिल्ली से भेजे गए मोदी व शाह के कुछ विश्वस्त नौकरशाह सरकार पर नियंत्रण करे हुए हैं और मुख्यमंत्री को भी दिल्ली से ही निर्देश मिलते हैं। यूं भी पहली बार विधायक बनते ही मुख्यमंत्री बनने वाले भजनलाल को प्रशासन और सरकार चलाने का अनुभव ना के बराबर है। जबकि अफसरशाही इस मामले में चतुर और चालाक होती है।*
*इसमें कोई शक नहीं की मोदी ने मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान व छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को भले ही राज्य की राजनीति से दूर करके अपनी पसंद के मुख्यमंत्री बनाए। लेकिन राजस्थान में वह मुख्यमंत्री भले ही अपनी पर्ची से बना गए हो,लेकिन वसुंधरा को वह ना तो राजनीति से दूर कर सके और नहीं उनके समर्थकों से। माना जाता है कि आज भी राजस्थान में वसुंधरा के बराबर की राजनीतिक हैसियत का कोई भाजपा नेता नहीं है,क्योंकि वसुंधरा के समर्थक राज्य के हर इलाके में मौजूद हैं। देखना होगा कि विधानसभा उपचुनाव में वसुंधरा की भूमिका क्या रहती है। क्या उनकी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट दिया जाता है? क्या प्रचार का मोर्चा उनके हवाले किया जाता है? प्रदेश संगठन में फेरबदल होने पर उनके समर्थकों को पर्याप्त भागीदारी मिलती है?और यह सब करने से पहले वसुंधरा किन शर्तों पर तैयार होती है,क्योंकि दूध का जला छाछ भी फूंककर पीता है।*