✍️शिवेंद्र तिवारी

श्री प्रकाश शुक्ला — नाम सुनते ही ज़हन में गोलियों की आवाज़ें गूंजती हैं, सीने में डर उतर आता है और उत्तर प्रदेश के उस दौर की तस्वीरें आंखों के सामने तैरने लगती हैं, जब कानून किताबों में और बंदूकें सड़कों पर राज कर रही थीं। लेकिन कभी कोई सोच भी नहीं सकता था कि ये वही लड़का था, जो बलिया की गलियों में किताबें लिए अफसर बनने का सपना देखा करता था।
1993 की एक सुबह, जब उसकी बहन की शादी हो रही थी, एक स्थानीय दबंग ने उसके परिवार का सरेआम अपमान कर दिया। कोई कुछ नहीं बोला, बारात चलती रही, लेकिन उस शालीन और शांत दिखने वाले लड़के के भीतर कुछ टूट गया। कुछ दिन बाद, उसी दबंग को उसने दिनदहाड़े गोली मार दी। ये उसकी पहली हत्या थी — और यहीं से शुरू हुआ एक ऐसा सफर, जो सीधा खून, सत्ता और खौफ की ओर ले जाता था।
हत्या के बाद वह भागा, छुपा, और उस भागते वक्त में उसने सीखा कि इस दुनिया में इज्जत, सुरक्षा और ताकत सिर्फ बंदूक से मिलती है। कानून, नैतिकता, व्यवस्था — ये सब किताबों के शब्द हैं, जमीन पर तो आवाज़ सिर्फ गोली की होती है। वह बदल रहा था। कॉलेज का छात्र अब गैंगस्टर बनने की राह पर था।
उसके अपराध की दुनिया में पहला कदम एक स्थानीय नेता के संरक्षण से सुरक्षित हुआ। बलिया के समीप गाजीपुर के एक दबंग विधायक, जो उस वक्त सत्ताधारी दल से जुड़े थे, ने श्री प्रकाश को अपने निजी कामों में लगाना शुरू किया। दबाव बनाने, ज़मीन कब्ज़ाने, और रंगदारी वसूलने जैसे छोटे-मोटे मामलों में उसकी मदद ली गई। बदले में उसे न सिर्फ राजनीतिक संरक्षण मिला, बल्कि पुलिस से भी बचाव मिलने लगा। कई बार जब उसके खिलाफ FIR दर्ज हुईं, तो स्थानीय थानेदारों को ऊपर से फोन चला जाता — “लड़का अपना है, छोड़ दो।”
श्री प्रकाश ने यही से सीखा कि कानून को कैसे मोड़ा जा सकता है और बंदूक के दम पर कैसे सत्ता हासिल की जा सकती है। उसका आत्मविश्वास बढ़ा और जल्द ही उसने खुद का गिरोह खड़ा कर लिया। ठेके, टेंडर, शराब का कारोबार, बिल्डिंग कॉन्ट्रैक्ट — हर क्षेत्र में उसने अपनी दहशत बनाई। वह मोबाइल फोन का पहला ऐसा अपराधी था जो हर दिन नया नंबर इस्तेमाल करता था, नेपाल से सैटेलाइट फोन तक चलाता था। पुलिस की तकनीक उस तक पहुँच ही नहीं पाती थी, सिर्फ उसका डर लोगों के दिलों तक पहुंचता था।
लखनऊ से लेकर बिहार और दिल्ली तक उसका नेटवर्क फैल गया। एक अफसर ने कहा था — “हमारे पास उसे पकड़ने का कोई तरीका नहीं था, हमारे पास सिर्फ उसका डर था।” डर इतना था कि मंत्री से लेकर डीएम तक उसकी कॉल आने पर काँप उठते थे। लेकिन फिर एक खबर आई जिसने सरकार को हिलाकर रख दिया — उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री की हत्या के लिए 6 करोड़ की सुपारी ली है। सरकार के भीतर हलचल मच गई। निर्णय हुआ कि उसे खत्म करना होगा। यहीं से STF — स्पेशल टास्क फोर्स — का जन्म हुआ, सिर्फ एक मकसद के लिए: श्री प्रकाश को जिंदा या मुर्दा पकड़ना।
लेकिन STF के लिए यह इतना आसान नहीं था। वह बिहार चला गया, लालू यादव के दौर में पटना के बाहरी इलाकों में खुलेआम घूमता था। पुलिस को उसकी लोकेशन पता होती थी, लेकिन जहाँ उसका नाम आता, वहाँ पहले गोलियाँ चलती थीं, गिरफ़्तारी की बात बाद में होती थी।
कभी उसने एक ठेकेदार को खुलेआम AK-47 से मार दिया क्योंकि उसने कमीशन देने से मना कर दिया था। उसके बाद 80% शराब कारोबारी खुद ही उसके दरवाज़े पर घुटनों के बल पहुंच गए। उसने अपहरण से लेकर वसूली तक, हर तरीके से करोड़ों कमाए। लेकिन इस खून और हिंसा की दुनिया में एक कोना ऐसा भी था जिसे वह दुनिया से छुपा कर रखता था।
बलिया के उसी कॉलेज में, जहां वह पढ़ता था, उसकी मुलाकात एक लड़की से हुई थी। सीधी-सादी, किताबों में डूबी रहने वाली लड़की। वही उसकी पहली और आखिरी मोहब्बत बनी। वो लड़की नहीं चाहती थी कि वह इस रास्ते पर जाए। बार-बार समझाती, रोती, कहती — “तुम्हारे हाथ में बंदूक नहीं, किताब होनी चाहिए।” लेकिन हर बार श्री प्रकाश चुप हो जाता। उसकी आंखें दूर कहीं देखती रहतीं, जैसे उस दुनिया की ओर जहाँ वह कभी जाना चाहता था, पर अब जा नहीं सकता था।
कहते हैं, जब वह नेपाल भागने वाला था, उसने बॉर्डर पार करने से पहले उसे एक कॉल किया — सिर्फ तीन शब्द बोले, “तुम याद आती हो”, और फोन काट दिया।
22 सितंबर 1998 को STF को पता चला कि वह कानपुर में है। एक सैंट्रो गाड़ी में। घेराबंदी हुई। फायरिंग शुरू हुई। कुछ ही मिनटों में वो वहीं गिर गया, जहां से उसने सबको झुकाने का सपना देखा था। उस दिन लखनऊ से बलिया तक मिठाइयाँ बँटीं, थानों में दीये जले। लेकिन बलिया के एक पुराने मोहल्ले में एक लड़की अपने कमरे में बंद हो गई। किसी को नहीं पता उसने उस दिन क्या किया, लेकिन लोग कहते हैं — उसने कभी शादी नहीं की, गाँव के स्कूल में मास्टरनी बन गई, और कभी-कभी आसमान की ओर देखती रहती थी जैसे कोई अधूरी कहानी हर दिन बुलाती थी।
उसकी मौत के बाद भी उसके नाम पर कॉल आते रहे, धमकियाँ मिलती रहीं। उसका नाम एक मिथ बन चुका था। STF की एक डायरी में लिखा गया — “आज हमने सिर्फ एक आदमी नहीं मारा, एक युग का अंत किया है। लेकिन अगला कौन?”
उसकी मां, जो कभी कहती थीं कि “जो बच्चा दूध मांगता था वो खून कैसे कर सकता है”, उस दिन चुप थीं। पुलिस लौट गई, लेकिन उनके भीतर का विश्वास मर चुका था।
श्री प्रकाश की कहानी सिर्फ एक अपराधी की नहीं थी। वह समाज की विफलता थी, उस चौराहे की कहानी थी जहां एक होनहार छात्र के सामने दो रास्ते थे — एक किताबों की ओर, दूसरा खून की ओर। और जब कोई व्यवस्था इतने असहाय हो जाए कि एक लड़का इंसाफ पाने के लिए खुद बंदूक उठा ले, तो उसकी मौत पर जश्न नहीं, अफसोस मनाया जाना चाहिए।
वो बहुत तेज़ था… लेकिन एक बार जिसने बंदूक थाम ली, वो फिर कभी किताब नहीं खोल पाया।
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