शिवेंद्र तिवारी

बक्सर की गलियों में जन्मा चंदन मिश्रा एक आम ब्राह्मण परिवार का लड़का था। मध्यमवर्गीय सोच, सीमित साधन, और छोटे सपने लेकर पला-बढ़ा। माँ-बाप की उम्मीदें थीं कि बेटा पढ़-लिखकर कुछ बनेगा। पर धीरे-धीरे जो बनने लगा, वो किसी ने नहीं सोचा था। चंदन की आंखों में बचपन से ही कुछ खतरनाक सा चमकता था — एक अलग तरह का जुनून, जो पढ़ाई या नौकरी की ओर नहीं, बल्कि ताक़त और खौफ की ओर ले जा रहा था।

बक्सर की सड़कों पर लड़कों के झुंड में उसकी मौजूदगी अलग ही दिखती थी। जब वो बोलता, बाकी चुप हो जाते। कुछ डरते थे, कुछ जलते थे, और कुछ उसका पीछा करते थे। धीरे-धीरे उसका नाम स्थानीय झगड़ों, ठेकेदारी की लड़ाइयों और रंगदारी के खेल में आने लगा। लेकिन उसका पहला बड़ा कदम वो था जिसने उसे अपराध की मुख्यधारा में खड़ा कर दिया।

साल था 2011। बक्सर का नामी व्यवसायी राजेंद्र केसरी। सीधा-साधा व्यापारी, जिसका कसूर बस इतना था कि उसने चंदन को रंगदारी देने से इनकार कर दिया था। शहर में एक खुली चुनौती दी थी — “किसी गुंडे को पैसा नहीं दूंगा।” ये बात चंदन को चुभ गई। और चुभने पर वो चुप नहीं बैठता था।
एक दोपहर, खुलेआम, लोगों के सामने राजेंद्र केसरी को गोली मार दी गई। इस हत्या ने पूरे शहर को झकझोर दिया। पुलिस से ज़्यादा डर आम लोगों को चंदन के नाम से लगने लगा। ये सिर्फ एक हत्या नहीं थी, ये एलान था कि चंदन मिश्रा अब सिर्फ नाम नहीं, एक सत्ता है — अपराध की सत्ता।
पुलिस ने तुरंत उसके खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी किया, उस पर ₹50,000 का इनाम घोषित हुआ। पर चंदन ने भागना सीख लिया था। पहले बनारस, फिर झारखंड और अंततः कोलकाता में जाकर छुप गया। वहीं से उसे गिरफ्तार किया गया। पुलिस ने इसे बड़ी कामयाबी बताया, पर चंदन के लिए ये बस एक नया अध्याय था — जेल वाला अध्याय।
बक्सर जेल, फिर भागलपुर, और फिर बेऊर, पटना। सालों साल जेल में रहने के बावजूद उसका वर्चस्व बना रहा। बाहर से संदेश आते, अंदर से आदेश जाते। जेल उसके लिए सिर्फ चारदीवारी थी, उसकी ‘सत्ता’ को कैद नहीं कर पाई।
इस दौरान उसका नाम बिहार की गैंगवॉर की फाइलों में स्थायी रूप से दर्ज हो गया। उसने अपने एक खास साथी शेरू सिंह के साथ मिलकर पूरे क्षेत्र में डर का साम्राज्य खड़ा कर दिया था। लोग रंगदारी देना शुरू कर चुके थे, चुपचाप।
पर कानून अपनी गति से चलता है। एक दशक लंबी लड़ाई के बाद 2020 में पटना की अदालत ने चंदन मिश्रा को उम्रकैद की सजा सुना दी। अदालत ने कहा, “ऐसे लोगों के लिए समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए।” वहीं उसके साथी शेरू को पहले फांसी की सजा दी गई, बाद में उम्रकैद में बदल दी गई।
जेल में चंदन बीमार रहने लगा था। अंदरूनी बीमारी — पाइल्स — ने उसे कमजोर कर दिया। 2024 में उसे पैरोल मिला इलाज के लिए। पटना के एक नामी निजी अस्पताल में भर्ती हुआ। वो अस्पताल में था, लेकिन खतरा अब भी उसके चारों ओर था।
18 जुलाई को उसे फिर से जेल वापस जाना था। लेकिन 17 जुलाई की रात तकरीबन 11 बजे, अस्पताल में ही उस पर जानलेवा हमला हुआ। दो नकाबपोश लोग अस्पताल में घुसे और गोलियों से छलनी कर दिया। उसे दो गोलियां लगीं — एक सीने में, एक पेट में। मौके पर ही उसकी मौत हो गई। पुलिस को शक है कि इस हत्या के पीछे उसी के पुराने साथी शेरू सिंह की गैंग है — शायद कोई पुराना बदला, या सत्ता की लड़ाई।
यहां कहानी खत्म नहीं होती, बल्कि यह समाज के लिए एक आइना है। चंदन मिश्रा कोई जन्मजात अपराधी नहीं था। वो समाज की ही एक उपज था — एक ऐसा समाज जहाँ ताक़त को इज्ज़त से जोड़ दिया गया, जहाँ डर ने सम्मान की जगह ले ली। शायद अगर वक़्त रहते उसे सही रास्ता दिखाया गया होता, अगर उसकी ताक़त को सही दिशा दी जाती, तो कहानी कुछ और होती।
चंदन मिश्रा अब नहीं रहा। लेकिन बक्सर की गलियों में अब भी उसके किस्से तैरते हैं। किसी बच्चे को डराने के लिए कहा जाता है — “सीधा रहो वरना चंदन बन जाओगे।” ये चेतावनी है, और एक पीड़ा भी।
समाज को अब यह तय करना है कि वह और कितने चंदन पैदा होने देगा। और क्या वह किसी चंदन को समय रहते थाम पाएगा, या फिर हर बार गोली ही आखिरी रास्ता बनेगा?