©शिवेंद्र तिवारी

रणबांकुरे रणमत सिंह
.विंध्य के बलिदानी में आज कहानी ठाकुर रणमत सिंह की…रणमत सिंह की बगावत के पहले उनकी पृष्ठभूमि समझ लेते हैं..
सतना जिले के मनकहरी गांव के निवासी ठाकुर रणमतसिंह महाराजा रघुराजसिंह के समकालीन थे। महाराजा इन्हें काकू कहा करते थे। उन्हें रीवा की सेना में सरदार का स्थान मिला था.रणमत सिंह बघेलखण्ड की कोठी जागीर के मनकहरी के ठाकुर महीपत सिंह के पुत्र थे। उनके दादा का नाम खुमान सिंह था। प्रारम्भ से ही रणमत की रुचि सैन्य गतिविधियों में थी। वह अपने सैन्य प्रदर्शन के लिए लालायित रहते थे।उनके पूर्वजों को पन्ना रियासत की ओर से एक हजार रुपये सालाना आय की जागीर मिली हुई थी.. रणमत सिंह पन्ना राजा की सेना में शामिल हो गए..पन्ना और रीवा रियासत में कुछ मतभेद बढ़ जाने के कारण युद्ध की नौबत आ गई। हालांकि अंग्रेजों के दखल से युद्ध रुक गया..
रीवा रियासत के राजा बघेल और पन्ना रियासत के राजा बुंदेला….रणमत सिंह बघेल वंश के थे। इसलिये उन्होंने बघेलों के खिलाफ पन्ना रियासत की ओर से युद्ध करना उचित नहीं समझा और पन्ना रियासत की सेना से नौकरी छोड़ दी। जिसके बाद पन्ना रियासत ने रणमत को सवा लाख रुपये सालाना आय की जागीर से बेदखल कर दिया गया
i रियासतों के तात्कालिक समझौते के तहत पन्ना राजा के कहने पर रणमत सिंह को रीवा रियासत में भी जगह नहीं मिली।वह अपने कुछ साथियों के साथ सागर आ गए। जहां वो अंग्रेजी सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। कुछ दिनों बाद उन्हें पदोन्नति देकर नौगाँव भेज दिया गया। जहाँ उन्होंने कैप्टन के रूप में पदभार सँभाल लिया।
1857 में बिहार के बाबू कुंवरसिंह और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अँग्रेज़ों के विरुद्ध भारी मारकाट मचाई। लेकिन दोनों शक्तियाँ मिल नहीं पाई क्योंकि बघेलखण्ड में अँग्रेज़ दोनों शक्तियों को मिलने नहीं देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे।महाराजा रघुराज सिंह पर भी अँग्रेज़ों की कड़ी नज़र थी।
कैप्टन रणमत सिंह की पलटन को आदेश मिला कि वह झाँसी की रानी के मददगार क्रान्तिकारी बख़्तबली और मर्दन सिंह को पकड़ने का अभियान चलाएँ । रणमत सिंह ने यह अभियान नहीं चलाया बल्कि वह दिखावे के लिए यहाँ-वहाँ डोलते रहे। यह बात अँग्रेज़ों को पता चल गई। उन्होंने रणमत सिंह और उनके साथियों को बर्खास्त कर दिया.. इसके बाद रणमत सिंह रीवा आ गए.. अब . यहां उन्हें पनाह के साथ सरदारी भी मिल गई… इसके आगे क्रन्तिकारी तिलँगा ब्राह्मण को मुक्त कराने, श्याम शाह धीर सिंह, पंजाब सिंह के साथ देश निकाला और बागी बनने की कहानी हम पिछले एपिसोड में बता चुके…
रीवा से राज निकाला और क्योंटी के किले में श्याम शाह के साथ मिलकर अंग्रेजों को धूल चटाने के बाद रणमत सिंह चित्रकूट के जंगल में पहुंच गए।..इसी जंगल में आगे की योजना बनी और सेना का गठन हुआ। ठाकुर रणमत सिंह ने नागोद की ब्रिटिश रेजीडेंसी पर हमला किया और अंग्रेज रेजीडेंट अजयगढ़ भाग गया। भेलसांय के मैदान में रणमत सिंह और अजयगढ़ की सेना के बीच युद्ध हुआ। अजयगढ़ राज्य की सेना का नेतृत्व केशरी सिंह बुंदेला ने किया…रणमत सिंह ने केशरी सिंह बुंदेला के शरीर को दो टुकड़ों में काट दिया। भीषण युद्ध हुआ, लेकिन अंततः अजयगढ़ की सेना के भारी सैन्य साजो-सामान के कारण विद्रोही हार गए। रणमत सिंह स्वयं गंभीर रूप से घायल हो गए और उनके भतीजे अजीत सिंह मारे गए। कुछ दिन आराम करने के बाद उन्होंने नौगांव छावनी पर हमला कर दिया। उनकी सेना ने नौगांव छावनी को लूट लिया..बड़ी मात्रा में वो गोला-बारूद लूट ले गए. वह तात्या टोपे से संपर्क स्थापित करना चाहते थे, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके क्योंकि चारों तरफ ब्रिटिश सेना तैनात थी। बरौंधा में उन्होंने ब्रिटिश सेना को बुरी तरह पराजित किया… पिंडरा गांव के एक बगीचे में दो ब्रिटिश अधिकारी भी उनके हाथ मारे गए। “मई 1858 में रणमत सिंह और फरजंद अली 300 लोगों के साथ झांसी की रानी की मदद के लिए कालपी गए और तीन-चार दिन वहीं रहे। रानी हार गईं। जब रानी ग्वालियर की ओर भाग गईं, तो रणमत सिंह फरजंद अली के साथ बुंदेलखंड वापस आ गए।” 18 अगस्त 1858 में चित्रकूट में विद्रोहियों और ब्रिटिश सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसका नेतृत्व ब्रिगेडियर कारपेंटर कर रहे थे। कर्वी के तहसीलदार अकबर अली और सब-इंस्पेक्टर गुलाम अहमद ने विद्रोहियों के खिलाफ लड़ने की पूरी कोशिश की। रणमत सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए और वे कोठी की ओर चले गए। कोठी के राजा अवधूत सिंह हमेशा से ही रणमत सिंह और विद्रोहियों की मदद करते रहे थे। वे खुद अंग्रेजों के खिलाफ खुले तौर पर विद्रोह नहीं कर रहे थे, क्योंकि वे अपने राज्य के हितों को ध्यान में रखते थे, लेकिन उन्होंने विद्रोहियों को गोला-बारूद, धन और खाद्य-सामग्री मुहैया कराई और विद्रोही सेना की भर्ती में भी मदद की। बुंदेलखंड में विद्रोह को दबा दिया गया था, बांदा की ब्रिटिश सेना की एक टुकड़ी रणमत सिंह को पकड़ने की कोशिश कर रही थी। इसी दौरान जब वह डभौरा के जमींदार रणजीत राय दीक्षित की गढ़ी में शरण लिए हुए थे
ब्रिटिश सेना ने हमला किया..अंग्रेजों ने तोप लगाकर गढ़ी को ध्वस्त कर दिया, लेकिन वो रणमत सिंह को नहीं पकड़ सके.. इसके बाद ज़ब वो क्योंटी के किले में छिपे थे. ब्रिटिश सेना ने रीवा राज्य की सेना की मदद से गढ़ी को घेर लिया।
करचुली ठाकुर दल थम्मन सिंह, रीवा राज्य की सेना के कमांडर थे.. उन्होंने गुप्त रूप से ठाकुर रणमत सिंह की मदद की। रीवा राज्य की सेना का हमला केवल दिखावा था। 7 ब्रिटिश अधिकारी मारे गए, जबकि ठाकुर रणमत सिंह भागने में सफल रहे। अंग्रेज इस घटना से बहुत नाराज हुए..इसके बाद रणमत सिंह डभौरा के रास्ते इलाहाबाद पहुंच गए..वो अंग्रेजों की छावनी लूटना चाहते थे लेकिन यहां किले में अंग्रेजों की भारी फ़ोर्स थी…रणमत सिंह को कदम पीछे करने पड़े.. अब तक नागौद, भेल साय चित्रकूट, नौगांव और क्योंटी के युद्धों में भीषण मारकाट मचाकर उन्होंने अंग्रेजों के मन में दहशत भर दी थी…
अब रीवा के अंग्रेज प्रशासक ओसबोर्न ने ठाकुर रणमत सिंह को फंसाने के लिए आखिरी चाल चली। उसे अपने मुखबिरों से पता चला कि महाराजा,रघुराज सिंह अंग्रेजों के मित्र होने के बावजूद रणमत सिंह के प्रति सहानुभूति रखते है.. उसने रणमत सिंह के आत्मसमर्पण के लिए महाराजा पर दबाव डाला.. महाराजा रघुराज सिंह ने रणमत सिंह को सन्देश भेजकर मिलने के लिए बुलवाया .रीवा के कम्पनी कमान्डर बलदेव सिंह का भाई उन तक महाराजा का सन्देश लेकर गया.. उन्हें बताया गया कि उनकी सजा माफ़ होगी और जागीर भी मिलेगी.. अंग्रेज इस पर सहमत हैं… रणमत सिंह गुप्त रूप से रीवा आए.. वो अपने मित्र विजयशंकर नागर के घर भूमिगत कमरे में आराम कर रहे थे,. रीवा राजा के दीवान दीनबंधु ने अंग्रेजों को इस बात की सूचना दी दी.. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया..उन्हें दो सौ सैनिकों की कड़ी सुरक्षा में बांदा ले जाया गया..हरोल ईश्वरजीत सिंह उन्हें ले जाने वाली सैनिक टोली की अगुआई कर रहे थे..
जांच में उम्हें कई लोगों की हत्या का दोषी पाया गया।
अगस्त, 1860 में बांदा में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया”