अंत में जो कांग्रेस में बचे थे और दिख रहे थे साथ में, वह भी नहीं थे साथ में
कई विधानसभा क्षेत्र में जबरदस्त पीछे होने से कांग्रेसियों में हताशा का माहौल
एक बार फिर यही बात सच साबित हुई की कि कांग्रेसियो ने कांग्रेस को हराने में नहीं छोड़ी कोई कोर कसर
अनिल त्रिपाठी, रीवा
माहौल अच्छा बना हुआ था। जिससे पूछो तो वही कह रहा था कि इस बार बदलाव की संभावना ज्यादा है। 40 दिनों तक कांग्रेस के दिग्गज यही पता लगा रहे थे और यह मान बैठे थे कि इस बार जीत हो सकती है। लेकिन जब परिणाम आए तो शुरुआती दौर से ही वह चौंकने लगे थे कि ऐसा कैसे हो रहा है। वह तो जीत की आस लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज गए हुए थे। 3 घंटे बाद की लीड देखकर वह निराश हुए और एक-एक कर बाहर आने लगे। अंत का परिणाम सबको पता ही है।
इस बार के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस इतिहास रचने का कल्पना कर रही थी। लेकिन पार्टी का यह सपना साकार नहीं हो पाया। यहां भर ही नहीं पूरे विंध्य में वही स्थिति देखने को मिली। अब अगर हम रीवा की बात करें तो यहां पर कांग्रेस प्रत्याशी नीलम अभय मिश्रा को मलाल इस बात का है कि उन्हें अपनों का ही भरपूर सहयोग नहीं मिल पाया। हालांकि वह सार्वजनिक तौर पर कुछ नहीं कह रही है, लेकिन कहीं न कहीं यह दर्द निकल ही आता है। इंडिया गठबंधन का भी रीवा में कुछ खास फायदा कांग्रेस को नहीं मिला, और अंत में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। अब संतोष इसी में किया जा रहा है कि जिस प्रकार वर्ष 2019 में कांग्रेस की हार हुई थी उससे कम से कम इस बार 1लाख़ 20 हजार वोटो से कम से यह हार हुई है। लेकिन कांग्रेस के समीक्षक भी इस बात को लेकर हतप्रभ है कि जिन इलाकों में विधानसभा चुनाव के दौरान हम बेहतर प्रदर्शन किए थे वहां 3 महीने में ऐसा क्या हो गया कि हार का आंकड़ा बढ़ गया।
हार की स्थितियों का आकलन करने वाले समीक्षक कहते हैं कि कांग्रेस कैंडिडेट के साथ कहीं न कहीं उनके ही लोगों ने वह कर डाला जो उन्हें नहीं करना चाहिए था। यह स्थिति पिछले डेढ़ दशक से देखने को मिल रही है और उसी का परिणाम है कि कांग्रेस पनप ही नहीं पा रही है। केवल स्वार्थ इतना है कि अगर यह हार जाएगा तो अगली बार वह दावेदार हो जाएंगे। बस इतने के चलते ही कांग्रेस की लुटिया डूब जाती है। समीक्षक कहते हैं कि जिस गुढ़ विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस महज ढाई हजार वोटो से हारी थी, लोकसभा चुनाव में यह हार आंकड़ा बढक़र 10 गुना से भी ज्यादा हो गया। जिस मऊगंज विधानसभा क्षेत्र में यह दावा किया जा रहा था कि इस बार कांग्रेस यहां पर अन्य क्षेत्रों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करेगी वहां हार का आंकड़ा चार गुना ज्यादा बढ़ गया। जिन सेक्टरों के बारे में यह दावा किया जा रहा था कि यहां इस बार सिर्फ कांग्रेस रहेगी परिणाम जब आया तो पता चला कि वहां केवल भाजपा है।
इस मामले में कांग्रेसी सूत्र बताते हैं कि विधानसभा चुनाव के पहले और लोकसभा चुनाव के दौरान स्वाभिमान की बात कहकर कांग्रेसी एक-एक कर अलग होते गए, इस मामले में सबसे बड़ी बात यह थी कि किसी ने उनसे संपर्क तक नहीं किया और यह नहीं पूछा कि कहां कैसा अपमान हुआ है। इस दौरान ऐसे लोगों ने कांग्रेस छोड़ी जिन्हें कांग्रेस ने बार-बार अपनाया, वह फिसड्डी साबित होते रहे, जनता उन्हें नकारती रही लेकिन पार्टी उन्हें मंच देती रही। कांग्रेस ने जब उन्हें चुनाव लड़ाने लायक उपयुक्त नहीं समझा, तो वह भगवाधारी हो गए। इसके अलावा हर के जो दूसरे कारण समझ में आ रहे हैं उसमें यह भी समीक्षक बताते हैं कि कांग्रेस ने क्षेत्रीय स्तर पर जिन नेताओं पर आंख मूंद कर भरोसा किया वह तन्मयता के साथ मैदान में नहीं पहुंच पाए। इसका परिणाम सामने देखने को मिला।
पहले रीवा विधानसभा में राजेंद्र शर्मा हो चुके हैं इस क्रम के शिकार
यहां पर लोग चर्चा के दौरान यह कहने से नहीं चूकते कि रीवा विधानसभा के चुनाव के दौरान कांग्रेस के विधानसभा प्रत्याशी राजेंद्र शर्मा भी इसके शिकार हो चुके हैं। जिन पर वह आंख मूंद कर भरोसा करते थे, जब चुनाव के बाद उन्हें उनकी गतिविधियों के बारे में जानकारी मिली तो वह अपना ही माथा पकड़ कर बैठ गए। कुछ न बोल पाना उनकी बड़ी मजबूरी में था, क्योंकि यदि बोलते तो उसका मैसेज खराब जाता। कांग्रेसी समीक्षाक यह कहने से नहीं चूकते कि राजनीति के मामले में भाजपा का कोई जवाब नहीं है और उस पर भी वर्तमान में भाजपा के राजनीति कार राजेंद्र शुक्ल का। राजनीति और जंग में सब कुछ जायज है केवल जीत हासिल होनी चाहिए। उसी क्रम में ऐसी रणनीति बनाई जाती है कि कांग्रेसी उनके आगे फिस्स हो जाते हैं।
आगे के लिए दमदार दावेदारो को ढूंढने में कांग्रेस को आएगा पसीना
चुनाव हार 5 साल में होना पक्का है। फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर स्थानीय कांग्रेसियों में भी 10 फ़ीसदी ऊर्जा आई है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि यहां पर दमदार दावेदारों की अत्यंत कमी हो चुकी है। इक्का दुक्का विधानसभा क्षेत्र ही ऐसे हैं जहां कांग्रेस कुछ हद तक ठीक-ठाक है। अगर यह कहा जाए कि 60 फ़ीसदी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के पास दमदार नेताओं की कमी है तो गलत नहीं होगा। यह बात अलग है कि टिकट कोई पा जाए और मैदान में आ जाए, लेकिन बेहतर परिणाम लाने के लिए संघर्षशील नेता की जरूरत है उसकी अधिकांश क्षेत्रों में अब काफी कमी सी दिखाई देने लगी है। यहां पर यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस तभी मजबूत होगी जब कांग्रेस का कोई दिग्गज रीवा जिले की सभी आठ विधानसभा क्षेत्र में अगले पूरे 5 साल केवल पार्टी कार्यकर्ताओं को जोडऩे का काम करें। अन्यथा भाजपा की रणनीति के आगे परिणाम इसी प्रकार आते रहेंगे।